Accountant कंपनी का एक महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है, जिसका कार्य कंपनी के सभी विभागों से डेटा व डॉक्यूमेंट एकत्रित कर के उसके आधार पर कंपनी कि वित्तिय स्तिथि, विभिन्न प्रकार के सूचना ,अपने मैनेजमेंट व सरकार को देना होता है। वह डेटा ( क्रय , विक्रय , व्यय , स्टॉक ) को व्यव्स्तिथत ढंग से रजिस्टर पर लिखता है अथवा वर्त्तमान में उपलब्ध विभिन्न एकाउंटिंग सॉफ्टवेयर में पूर्व निर्धारित नियमानुसार इंट्री करता है।
कपंनी एक कृतिम व्यक्ति होती है और अकाउंटेंट उस व्यक्ति की आँख होता है जो विभिन्न सूचनाओं को मस्तिष्क रूपी मैनेजमेंट को प्रदान करता है।
एक अकाउंटेंट ऐसा व्यक्ति होता है जो अपने कौशल के अनुरूप अपनी आमदनी प्राप्त करता है यदि आपको इसका बेसिक जानकारी ही है तो भी किसी छोटी दुकान या कंपनी में अककॉउंट अस्सिस्टेंट के रूप मे कार्यरत हो सकते है जहां अपकी आमदनी कम होंगी, और यदि ज्यादा जानकारी है तो बडी कंपनियों में ज्यादा वेतन के साथ आप कार्यरत होते है । यही इस field की विशेषता है जो अन्य किसी भी व्यावसायिक क्षेत्र में नहीं नजर आता है, इसीलीये आज ज्यादा तर विद्यार्थी Accounting Subject की ओर आकर्षित हो रहे है।
इस विषय से पढ़ने वाले विद्यार्थी आगे चल कर चार्टर्ड अकाउंटेंट, कॉस्ट अकाउंटेंट, कंपनी सचिव व मैनेजमेंट के कई कोर्स कर कर उपरोक्त पदो को प्राप्त करते हैं, जिससे उनका समाज में एक सम्मानित स्थान प्राप्त होता है।
अकाउंटेंट कैसे बने:-
एकाउंट का अर्थ लेखा शास्त्र है और जो इस को करता है उसे लेखाकर्मी या अकाउंटेंट कहते हैं।
इसको सीखने की प्रक्रिया तो हम अपने बेसिक क्लास मैं ही मैथ पढने के साथ शुरू कर देते हैं।परंतु इसकी वास्तविक शुरुआत कक्षा ९ में कामर्स विषय के साथ प्रवेश करने पर होती है, व ग्रेजुएशन करने के पश्चात पूरी होती है, और आधिक कौशल वृद्धि के लिए हम पोस्ट ग्रेजुएशन भी कर सकते हैं, इसमें हम ग्रेजुएशन के रूप में B.com (बैचलर ऑफ कॉमर्स),एवं पोस्ट ग्रेजुएट मे हम M.com (मास्टर ऑफ़ कॉमर्स) करते हैं ,इसके पश्चात हम अपने इच्छा के अनुसार कोई भी प्रोफेशनल कोर्स जैसे सी. ए., सी. एस. आदि कर सकते हैं ।
- सी. ए. बनने के लिए देखे- How to Become C.A.
- सी. एस . बनने के लिए देखे- How to Become company secretary
एकाउंट्स की अवधारणा:-
एकाउंट रूपी वृक्ष मूलतः व्यापार का अवधारणा ही है, जिसमे यह माना जाता है कि किसी भी लेनदेन के दो पहलू होते है, एक देने वाला और दूसरा लेने वाला, आधुनिक व्यवसाय का आकार इतना विस्तृत हो गया है कि इसमें सैकड़ों, सहस्त्रों व अरबों व्यावसायिक लेनदेन होते रहते हैं। इन लेन देनों के ब्यौरे को याद रखकर व्यावसायिक उपक्रम का संचालन करना असम्भव है। अतः इन लेनदेनों का क्रमबद्ध अभिलेख (records) रखे जाते हैं उनके क्रमबद्ध ज्ञान व प्रयोग-कला को ही लेखाशास्त्र कहते हैं। लेखाशास्त्र के व्यावहारिक रूप को लेखांकन कह सकते हैं। अमेरिकन इन्स्ट्टीयूट ऑफ सर्टिफाइड पब्लिक अकाउन्टैन्ट्स (AICPA) की लेखांकन शब्दावली, बुलेटिन के अनुसार ‘‘लेखांकन उन व्यवहारों और घटनाओं को, जो कि कम से कम अंशतः वित्तीय प्रकृति के है, मुद्रा के रूप में प्रभावपूर्ण तरीके से लिखने, वर्गीकृत करने तथा सारांश निकालने एवं उनके परिणामों की व्याख्या करने की कला है।’’
इस परिभाषा के अनुसार लेखांकन एक कला है, विज्ञान नहीं। इस कला का उपयोग वित्तीय प्रकृति के मुद्रा में मापनीय व्यवहारों और घटनाओं के अभिलेखन, वर्गीकरण, संक्षेपण और निर्वचन के लिए किया जाता है।.
स्मिथ एवं एशबर्न ने उपर्युक्त परिभाषा को कुछ सुधार के साथ प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार ‘लेखांकन मुख्यतः वित्तीय प्रकृति के व्यावसायिक लेनदेनों और घटनाओं के अभिलेखन तथा वर्गीकरण का विज्ञान है और उन लेनदेनें और घटनाओं का महत्वपूर्ण सारांश बनाने, विश्लेषण तथा व्याख्या करने और परिणामों को उन व्यक्तियों को सम्प्रेषित करने की कला है, जिन्हें निर्णय लेने हैं।' इस परिभाषा के अनुसार लेखांकन विज्ञान और कला दोनों ही है। किन्तु यह एक पूर्ण निश्चित विज्ञान न होकर लगभग पूर्ण विज्ञान है।
अमेरिकन एकाउन्टिग प्रिन्सिपल्स बोर्ड ने लेखांकन को एक सेवा क्रिया के रूप में परिभाषित किया है। उसके अनुसार, ‘लेखांकन एक सेवा क्रिया है। इसका कार्य आर्थिक इकाइयों के बारे में मुख्यतः वित्तीय प्रकृति की परिणामात्मक सूचना देना है जो कि वैकल्पिक व्यवहार क्रियाओं (alternative course of action) में तर्कयुक्त चयन द्वारा आर्थिक निर्णय लेने में उपयोगी हो।’.
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर लेखांकन को व्यवसाय के वित्तीय प्रकृति के लेन-देनों को सुनिश्चित, सुगठित एवं सुनियोजित तरीके से लिखने, प्रस्तुत करने, निर्वचन करने और सूचित करने की कला कहा जा सकता है।
एकाउंट्स की अवधारणा:-
एकाउंट रूपी वृक्ष मूलतः व्यापार का अवधारणा ही है, जिसमे यह माना जाता है कि किसी भी लेनदेन के दो पहलू होते है, एक देने वाला और दूसरा लेने वाला। आधुनिक व्यवसाय का आकार इतना विस्तृत हो गया है कि इसमें सैकड़ों, सहस्त्रों व अरबों व्यावसायिक लेनदेन होते रहते हैं। इन लेन देनों के ब्यौरे को याद रखकर व्यावसायिक उपक्रम का संचालन करना असम्भव है। अतः इन लेनदेनों का क्रमबद्ध अभिलेख (records) रखे जाते हैं उनके क्रमबद्ध ज्ञान व प्रयोग-कला को ही लेखाशास्त्र कहते हैं। लेखाशास्त्र के व्यावहारिक रूप को लेखांकन कह सकते हैं। अमेरिकन इन्स्ट्टीयूट ऑफ सर्टिफाइड पब्लिक अकाउन्टैन्ट्स (AICPA) की लेखांकन शब्दावली, बुलेटिन के अनुसार ‘‘लेखांकन उन व्यवहारों और घटनाओं को, जो कि कम से कम अंशतः वित्तीय प्रकृति के है, मुद्रा के रूप में प्रभावपूर्ण तरीके से लिखने, वर्गीकृत करने तथा सारांश निकालने एवं उनके परिणामों की व्याख्या करने की कला है।’’
लेखांकन के उद्देश्य:-
लेखांकन के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार है -
विधिवत अभिलेख रखना :-
प्रत्येक व्यावसायिक लेन-देन को पुस्तकों में क्रमबद्ध तरीके से लिखना व उचित हिसाब रखना लेखांकन का प्रथम उद्देश्य है। लेखांकन के अभाव में मानव स्मृति (याददास्त) पर बहुत भार होता जिसका अधिकांश दशाओं में वहन करना असम्भव होता। विधिवत अभिलेखन से भूल व छल-कपटों को दूर करने में सहायता मिलती है।
व्यावसायिक सम्पत्तियों को सुरक्षित रखना:-
लेखांकन व्यावसायिक सम्पत्तियों के अनुचित एवं अवांछनीय उपयोग से सुरक्षा करता है। ऐसा लेखांकन द्वारा प्रबन्ध को निम्न सूचनाएं प्रदान करने के कारण सम्भव होता है -
(१) व्यवसाय में स्वामियों के कोषों की विनियोजित राशि,
(२) व्यावसाय को अन्य व्यक्तियों को कितना देना है,
(३) व्यवसाय को अन्य व्यक्तियों से कितना वसूल करना है,
(४) व्यवसाय के पास स्थायी सम्पत्तियां, हस्तस्थ रोकड़, बैंक शेष तथा कच्चा माल, अर्द्ध-निर्मित माल एवं निर्मित माल का स्टॉक कितना है?
उपर्युक्त सूचना व्यवसाय स्वामी को यह जानने में सहायक होती है कि व्यवसाय के कोष अनावश्यक रूप से निष्क्रिय तो नहीं पड़े हैं।
शुद्ध लाभ या हानि का निर्धारण:-
लेखांकन अवधि के अन्त में व्यवसाय संचालन के फलस्वरूप उत्पन्न शुद्ध लाभ अथवा हानि का निर्धारण लेखांकन का प्रमुख उद्देश्य है। शुद्ध लाभ अथवा हानि एवं निश्चित अवधि के कुछ आगमों एवं कुछ व्ययों का अन्तर होता है। यदि आगमों की राशि अधिक है तो शुद्ध लाभ होगा तथा विपरीत परिस्थिति में शुद्ध हानि। यह प्रबन्धकीय कुशलता तथा व्यवसाय की प्रगति का सूचक होता है। यही अंशधारियों में लाभांश वितरण का आधार होता है।
व्यवसाय की वित्तीय स्थिति का निर्धारण:-
लाभ-हानि खाते द्वारा प्रदत्त सूचना पर्याप्त नहीं है। व्यवसायी अपनी वित्तीय स्थिति भी जानना चाहता है। इसकी पूर्ति चिट्ठे द्वारा की जाती है। चिट्ठा एक विशेष तिथि को व्यवसाय की सम्पत्तियों एवं दायित्वों का विवरण है। यह व्यवसाय के वित्तीय स्वास्थ्य को जानने में बैरोमीटर का कार्य करता है।
विवेकपूर्ण निर्णय लेने के लिए सम्बन्धित अधिकरियों एवं संस्था में हित रखने वाले विभिन्न पक्षकारों को वांछित सूचना उपलब्ध कराना, लेखांकन का उद्देश्य है। अमेरिकन अकाउंटिंग एसोसिएशन ने भी लेखांकन की परिभाषा देते हुए इस बिन्दु पर विशेष बल दिया है। उनके अनुसार,
*‘‘लेखांकन सूचना के उपयोगकर्ताओं द्वारा निर्णयन हेतु आर्थिक सूचना को पहचानने, मापने तथा सम्प्रेषण की प्रक्रिया है।’’
लेखांकन की प्रमुख प्रणालियां:-
लेखांकन की अनेक प्रणलियाँ (systems) हैं जिनमें से निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-
•नकद लेन-देन (Cash system)
•इकहरा लेखा प्रणाली (Single Entry System)
•दोहरा लेखा प्रणाली (Double Entry System)
•भारतीय बहीखाता प्रणाली (Indian Book-Keeping System)
नकद लेन-देन (रोकड़) प्रणाली:-
इस प्रणाली का प्रयोग अधिकतर गैर व्यापारिक संस्थाओं जैसे क्लब, अनाथालय, पुस्तकालय तथा अन्य समाज सेवी संस्थाओं द्वारा किया जाता है। इन संस्थाओं का उद्देश्य लाभ कमाना नहीं होता और ये पुस्तपालन से केवल यह जानना चाहती है कि उनके पास कितनी रोकड़ आयी तथा कितनी गयी और कितनी शेष है रोकड़ प्रणाली के अन्तर्गत केवल रोकड़ बही (कैश बुक) बनायी जाती है। इस पुस्तक में सारे नकद लेनदेनों को लिखा जाता है। वर्ष के अन्त में कोई अन्तिम खाता या लाभ-हानि खाता आदि नहीं बनाया जाता। आय-व्यय की स्थिति को समझने के लिए एक आय-व्यय खाता (Income & Expenditure Account) बनाया जाता है।
इकहरा लेखा प्रणाली:-
इस पद्धति में नकद लेन-देनों को रोकड पुस्तक में तथा उधार लेन देनों को खाता बही में लिखा जाता है। यह प्रणाली मुख्यतः छोटे फुटकर व्यापारियों द्वारा प्रयोग की जाती है। इस प्रकार पुस्तकें रखने से केवल यह जानकारी होती है कि व्यापारी की रोकड़ की स्थिति कैसी है, अर्थात् कितनी रोकड़ आयी तथा कितनी गयी तथा कितनी शेष है। किसको कितना देना है तथा किससे कितना लेना है, इसकी जानकारी खाता बही से हो जाती है। इस पद्धति से लाभ-हानि खाता व आर्थिक चिट्ठा बनाना संभव नहीं होता जब तक कि इस प्रणाली को दोहरा लेखा प्रणाली में बदल न दिया जाय। इसलिए इस प्रणाली को अपूर्ण प्रणाली माना जाता है।
दोहरा लेखा प्रणाली:-
यह पुस्तपालन की सबसे अच्छी प्रणाली मानी जाती है। इस पद्धति में प्रत्येक व्यवहार के दोनों रूपों (डेबिट व क्रेडिट या ऋण व धनी) का लेखा किया जाता है। यह कुछ निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित होती है। वर्ष के अन्त में अन्तिम खाते बनाकर व्यवसाय की वास्तविक स्थिति की जानकारी करना इस पद्धति के माध्यम से आसान होता है।
भारतीय बहीखाता प्रणाली:-
यह भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रचलित पद्धति है। अधिकांश भारतीय व्यापारी इस प्रणाली के अनुसार ही अपना हिसाब-किताब रखते हैं। यह भी निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित पूर्णतया वैज्ञानिक प्रणाली है। इस प्रणाली के आधार पर भी वर्ष के अन्त में लाभ-हानि खाता तथा आर्थिक चिट्ठा बनाया जाता है।
खातों के प्रकार:-
प्रत्येक लेनदेन में दो पहलू या पक्ष होते हैं। खाता-बही (Ledger) में प्रत्येक पक्ष का एक खाता बनाया जाता है। खाता (Account) खाता बही (लेजर) का वह भाग है जिसमें व्यक्ति, वस्तुओं अथवा सेवाओं के सम्बन्ध में किए हुए लेनदेनों का सामूहिक विवरण लिखा जाता है। इस प्रकार प्रत्येक खाते की स्थिति का पता लग जाता है कि वह खाता लेनदार (Creditor) है तथा देनदार (Detor)। दोहरी प्रणाली के अनुसार स्रोतों में लेनदेनों को लिखने के लिए खातों के वर्गीकरण को जानना आवश्यक है।
खातों के प्रकार
•व्यक्तिगत खाते (Personal accounts)
1. एक व्यक्ति का खाता, (जैसे राम का खाता, मोहन का खाता, पूंजी खाता)
2. फर्म का खाता (जैसे गुप्ता ब्रदर्स, मै. गणेश प्रसाद राजीव कुमार)
•अव्यक्तिगत खाते (Impersonal accounts)
•वास्तविक खाते (real accounts)
•माल खाता (Goods account),
•रोकड खाता (cash account)
•मशीन खाता
•भवन खाता आदि
नाममात्र खाते (nominal accounts)
•आय के खाते
•प्राप्त ब्याज खाता
•कमीशन खाता, आदि
•व्यय के खाते
•वेतन खाता
•किराया खाता
•मजदूरी खाता
•ब्याज खाता आदि
व्यक्तिगत खाते:-
जिन खातों का सम्बन्ध किसी विशेष व्यक्ति से होता है, वे व्यक्तिगत खाते कहलाते हैं। व्यक्ति का अर्थ स्वयं व्यक्ति, फर्म, कम्पनी और अन्य किसी प्रकार की व्यापारिक संस्था होता है। दूसरे शब्दों में, सब लेनदारों तथा देनदारों के खाते व्यक्तिगत खाते होते हैं। इस दृष्टि से पूंजी (capital) तथा आहरण (drawing) के खाते भी व्यक्तिगत होते हैं क्योंकि इनमें व्यापार के स्वामी से सम्बन्धित लेनदेन लिखे जाते हैं। व्यापार के स्वामी के व्यक्तिगत खाते को पूंजी खाता कहा जाता है। व्यापार के स्वामी द्वारा व्यवसाय से मुद्रा निकालने के लिए आहरण खाता खोला जाता है। इस प्रकार आहरण खाता भी व्यक्तिगत खाता होता है।
वास्तविक खाते:-
वस्तुओं और सम्पत्ति के खाते वास्तविक खाते कहलाते हैं। इन खातों को वास्तविक इसलिए कहा जाता है कि इनमें वर्णित वस्तुएं, विशेष सम्पत्ति के रूप में व्यापार में प्रयोग की जाती है। आवश्यकता पड़ने पर इन्हें बेचकर व्यापारी अपनी पूंजी को धन के रूप में परिवर्तित कर सकता है। वास्तविक खाते आर्थिक चिट्ठे में सम्पत्ति की तरह दिखाये जाते हैं। जैसे मशीन, भवन, माल, यन्त्र, फर्नीचर, रोकड व बैंक आदि के वास्तविक खाते होते हैं।
नाममात्र के खाते:-
इन खातों को अवास्तविक खाते भी कहते हैं। व्यापार में अनेक खर्च की मदें, आय की मदें तथा लाभ अथवा हानि की मदें होती हैं। इन सबके लिए अलग-अलग खाते बनते हैं जिनको ‘नाममात्र’ के खाते कहते हैं। व्यक्तिगत अथवा वास्तविक खातों की तरह इनका कोई मूर्त आधार नहीं होता। उदाहरण के लिए वेतन, मजदूरी, कमीशन, ब्याज इत्यादि के खाते नाममात्र के खाते होते हैं।
लेखांकन के सैद्धान्तिक आधार
1. सामान्यतः स्वीकृत लेखांकन सिद्धान्त : वित्तीय विवरण सामान्यतः स्वीकृत लेखांकन सिद्धान्त के अनुसार तैयार किये जाने चाहिए ताकि इनसे अन्तः अवधि तथा अन्तः कर्म की तुलना की जा सके।
2. लेखांकन सिद्धान्त - किसी व्यवस्था या कार्य के नियंत्रण हेतु प्रतिपादित कोई विचार जिसे व्यावसायिक वर्ग के सदस्यों द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है। ये मनुष्य द्वारा निर्मित हैं। रसायन एवं भौतिक विज्ञान की तरह सार्वभौमिक नहीं है।
3. लेखाशास्त्र के सिद्धान्त सामान्य रूप से तभी स्वीकृत होते है जब उनमें तीन लक्षण विद्यमान हों, ये हैं - सम्बद्धता, वस्तु परकता एवं सुगमता
4. सत्ता की अवधारणा - व्यवसाय का उसके स्वामियों तथा प्रबंधकों से स्वतंत्र एवं पृथक अस्तित्व होता है। अतः व्यवसाय का स्वामी भी पूँजी के लिए व्यवसाय का लेनदार माना जाता है। व्यवसाय के स्वामी का पृथक् अस्तित्व माना जाता है। लाभों का एक भाग जो स्वामी के हिस्से में आता है देय होता है और चालू दायित्व का।
5. मुद्रा माप संबंधी अवधारणा - लेखांकन मौद्रिक व्यवहारों से संबंधित है अमौद्रिक घटनाएँ जैसे - कर्मचारियों को ईमानदारी, स्वामिभक्ति, कर्तव्यनिष्ठा आदि का लेखांकन नहीं किया जा सकता।
6. निरन्तरता की अवधारणा - यह बताती है कि व्यवसाय दीर्घकाल तक निरन्तर चलता रहेगा, जब तक कि कोई विपरीत कारण न हो। अमूर्त सम्पत्तियों तथा आस्थिगत व्ययों का उनकी उपयोगिता के आधार पर प्रतिवर्ष अपलेखन, स्थायी सम्पत्तियों को चिट्ठे में अपलिखित मूल्य पर इसी आधार पर दिखाया जाता है।
7. लागत अवधारणा - निरन्तर की अवधारणा पर आधारित है जो यह बताती है कि सम्पत्तियों को उनके लागत मूल्य पर दर्ज किया जाता है।
8. लेखांकन की दोहरा लेखा प्रणाली द्विपक्ष अवधारणा पर आधारित है जिसके अनुसार प्रत्येक डेबिट के बराबर क्रेडिट होता है। लेखांकन समीकरण द्विपक्ष अवधारणा पर आधारित है।
9. व्यवसाय में आगत उस अवधि में प्राप्त मानी जाती है जब ग्राहक के मूल्य के बदले माल या सेवायें दी जाती है। किन्तु दीर्घकालीन ठेकों, सोने की खानों, जहाँ आय प्राप्ति अनिश्चित हो, में आगम सुपुर्दगी देने पर नहीं मानी जाती।
10. उपार्जन अवधारणा के अनुसार व्यवसाय में आय-व्यय के मदों का लेखा देय आधार पर किया जाता है - जो कि उस अवधि से संबंधित हो।
11. लेखा अवधि की अवधारणा के आधार पर प्रत्येक लेखा अवधि के अन्त में वर्ष भर किये गये व्यवहारों के आधार पर लाभ-हानि खाता तथा चिट्ठा बनाया जाता है। सत्ता और मुद्रा मापन लेखांकन की मौलिक अवधारणाएँ है।
12. मिलान की अवधारणा उपार्जन की अवधारणा पर आधारित है।
13. कालबद्धता की संकल्पना को मिलान की अवधारणा लागू करते समय अपनाया जाता है।
14. लेखाकार को चाहिए कि वित्तीय विवरण पत्र पूर्णतया सत्य हो तथा समस्त महत्वपूर्ण सूचनाओं को इनमें प्रदर्शित किया गया हो। इसी आधार पर कम्पनयिँ पिछले वर्षां के तुलनात्मक आँकड़े अनुसूचियों के रूप में विस्तृत सूचनाएँ आदि शामिल करती है।
15. लेखापाल को उन्हीं तथ्यों एव घटनाओं को वार्षिक लेखों में प्रदर्शित करना चाहिए जो कि महत्वपूर्ण हों। सारहीन तथ्यों की उपेक्षा करनी चाहिए।
16. रूढ़िवादिता ( अनुदारवादिता) - के अनुसार एक लेखाकार को भावी संभाव्य सभी हानियों की व्यवस्था करनी चाहिए तथा भावी आय व लाभों को शामिल न करें। इस संकल्पना के आधार पर लेखाकार - देनदारों पर डूबत एवं संदिग्ध ऋणों व बट्टे के लिए आयोजन, स्टॉक का लागत मूल्य व बाजार मूल्य में से कम पर मूल्यांकन लेनदारों पर बट्टे के लिए आयोजन न करना, अमूर्त सम्पत्तियों का अपलेखन, मूल्य हृस का की क्रमागत हृस विधि को अपनाना, ऋणपत्रों के निर्गमन के समय ही शोधन पर देय प्रीमियम का प्रावधान करना, आदि करता है।
17. महत्वपूर्णता या सारता एक व्यक्तिनिष्ठ मद है।
18. लेखांकन की तीन आधारभूत मान्यताएँ है - सुदीर्घ संस्थान, सततता, उपार्जन।
व्यापार मे उपयोग:-
व्यापारी का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है। इसकी जानकारी के लिये व्यापारी तलपट के आधार पर अंतिम लेखे (final accounts) तैयार करता है। यह कोई एक लेखा नहीं, लेखों का सारांश होता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित लेख तैयार किये जाते हैं
1.व्यापार खाता (Trading account)
2.लाभ हानि खता (Profit and loss account)
3.स्थिति विवरण (चिट्ठा) (Balance sheet)
उपरोक्त विवरणों के आधार पर व्यापारी शुद्ध आय या शुद्ध हानि के साथ-साथ अपने व्यापार की वित्तीय स्थिति भी ज्ञात कर सकता है। वित्तीय स्थिति से तात्पर्य व्यापार की सम्पत्ति एवं दायित्वों की तुलना से है।
सभी गैर व्यावसायिक संस्थाए अंतिम लेखे तैयार नहीं करती परन्तु अनेक बड़ी संस्थाए अपनी संस्था की सही आर्थिक स्थिति जानने के लिए एवं यह जानने के लिए किं आय का व्यय पर आधिक्य है या व्यय का आय पर आधिक्य है, अंतिम लेखे तैयार करती है।
1.व्यापार खाता (Trading Accounts)
व्यापार खाता सकल लाभ हानि ज्ञात करने के लिये तैयार किया जाता है इसमें जिन वस्तुओं का व्यापार किया जाता है उससे संबंधित क्रय एवं विक्रय खातों के शेष तथा उनसे संबंधित प्रत्यक्ष खर्चों के खाते जैसे मजदूरी खाता, आवक भाड़ा आदि। इसमें प्रारम्भिक रहतिया (यदि हो) एवं अंतिम रहतियें को भी दर्शाया जाता है।
व्यापार खाते के दो पक्ष होते हैं, डेबिट और क्रेडिट पक्ष |
डेबिट पक्ष में प्रारम्भिक रहतिया (Opening Stock) क्रय खाता उससे संबंधित खर्चो एवं सकल लाभ यदि हो तो दर्शाया जाता है।
क्रेडिट पक्ष में विक्रय खाता, अंतिम रहतिया एवं सकल हानि यदि हो तो दर्शायी जाती है।
2.लाभ या हानि खाता (Profit And Loss Accounts)
इसे शुद्ध लाभ या हानि ज्ञात करने के लिये तैयार किया जाता है। इसमें व्यापार या संस्था के समस्त आगम (आयगत) एवं अप्रत्यक्ष खर्चो को डेबिट पक्ष की ओर दर्शाया जाता है एवं आगम (आयगत) एवं अप्रत्यक्ष आय जैसे प्राप्त कमीशन, प्राप्त छूट, प्राप्त ब्याज आदि को क्रेडिट पक्ष की ओर दर्शाया जाता है। एवं व्यापार खाते से लाया गया सकल लाभ क्रेडिट पक्ष की ओर और यदि सकल हानि हो तो डेबिट पक्ष की ओर दर्शायी जाती है।
oसंक्षेप में हम कह सकते हैं कि अवास्तविक खातों से संबंधित समस्त खातों के शेष लाभ-हानि खाते में लिखा जाता है यदि क्रेडिट शेष हो तो उसे शुद्ध लाभ लिखकर डेविट पक्ष में दर्शाया जाता है। इसके विपरीत यदि डेबिट शेष हो तो शुद्ध हानि लिखकर क्रेडिट पक्ष में लिखा जाता है।
स्थिति विवरण (चिट्ठा) (Balance Sheet)
चिट्ठे से आशय ऐसे विवरण पत्र से है जो एक निर्धारित तिथि पर व्यवसाय की वित्तीय स्थिति को प्रगट करता है। वित्तीय स्थिति से आशय व्यापार की सम्पत्ति एवं उसके दायित्वों की तुलना से होता है। इसकी जानकारी के लिये व्यापारी वर्ष के अंत में सम्पत्ति एवं दायित्वों का विवरण तैयार करते हैं जिसे चिट्ठा कहते है।
चिट्ठे के बाई ओर के भाग में व्यापार के दायित्व एवं दाहिनी ओर सम्पत्तियाँ दर्शाई जाती है। चिट्ठे में दायित्व एवं सम्पत्तियों के अतिरिक्त समायोजन प्रविष्टियाँ भी उनके गुण के अनुसार सम्पत्ति एवं दायित्व की तरफ दर्शाई जाती है।
दायित्व पक्ष (Liability Side)
दायित्व का आशय ऋण, उधार लोन या ऐसे खर्चों से है जिसका भुगतान करना बाकि है। इन सभी को चिट्ठे के दायित्व पक्ष की ओर दर्शाया जाता है इनके साथ-साथ व्यापार की पूंजी एवं संचित निधि को भी इसी पक्ष में लिखते हैं। दायित्वों को भी तीन भागों में बांटा जाता है ;-
1.स्थाई दायित्व
2.अस्थाई दायित्व
3.आकस्मिक दायित्व
1.स्थाई दायित्व :- ऐसे सभी दायित्व जिनका भुगतान दीर्घकाल में किया जाता है जैसे दीर्घकालिक लेनदार (Long Term Creditors) दीर्घ कालिक ऋण (Long Term Loan) पूंजी को भी स्थाई दायित्व माना जाता है।
2.अस्थाई दायित्व या चालू दायित्व :- ऐसे सभी दायित्व जिनका भुगतान अल्प अवधि में देय हो चालू दायित्व कहलाता है। जैसे बैंक अधि विकर्ष अदत्त मजदूरी एवं वेतन, अन्य अदत्त व्यय एवं अल्प कालीन लेनदार।
3.आकस्मिक दायित्व - ऐसे दायित्व जो चिट्ठा तैयार करने की तिथि को देय नहीं होते किंतु घटना विशेष के कारण देय हो सकते है, को आकस्मिक दायित्व कहते है। जैसे कर्मचारी सुरक्षा निधि या विशेष प्रयोजन हेतु संचित निधि।
संपत्ति पक्ष (Assets Side)
इस पक्ष में व्यापार की समस्त सम्पत्तियों को एकीकृत करके दर्शाते हैं। व्यापारिक सम्पत्ति को पांच भागों में वर्गीकृत किया गया है -
1.स्थाई सम्पत्ति (Fixed assets) : जो सम्पत्ति व्यापार या संस्था को चलाने के लिये क्रय की जाती है उन्हें स्थाई सम्पत्ति कहते है। जैसे, भवन, भूमि, मशीने, फर्नीचर इत्यादि।
2.चल सम्पत्ति (Current assets) : ऐसी सम्पत्ति जो व्यापार में पुनः बेचने के लिये खरीदी जाती है या रोकड़ में परिवर्तित करने हेतु व्यापार में रखी जाती है उन्हें चल सम्पत्ति कहते है।
3.तरल सम्पत्ति (Floating assets) : व्यापारी की ऐसी सम्पत्तियां जो कि रोकड़ को प्रदर्शित करती है को तरल सम्पत्ति कहते है जैसे रोकड़, बैंक में रोकड़, धनादेश आदि।
4.नष्ट होने वाली सम्पत्ति (Wasting assets) : ऐसी सम्पत्तियां जिनका उपयोग करने से नष्ट हो जाती है को नष्ट होने वाली सम्पत्ति कहा जाता है। जैसे खदान, जीवित पशु आदि।
5.काल्पनिक सम्पत्ति : जो वास्तव में सम्पत्तियां नहीं होती पर चिट्ठे में सम्पत्ति की ओर दिखायी जाती है, को काल्पनिक सम्पत्ति कहते है। इसमें ऐसे खर्चों को शामिल किया जाता है जो इतने अधिक होते हैं कि उनकी सम्पूर्ण राशि एक वर्ष में लाभ हानि खाते में हस्तांतरित न की जाकर कई वर्षों में हस्तांतरित की जाती है।
6.अंत में व्यापार से होने वाले लाभ को दायित्व की ओर पूंजी में जोड़ दिया जाता है या हानि को घटा दिया जाता है।
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